कैसा है भारतीय संविधान?
किसी भी देश के लिए उस देश का संविधान सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है। भारत का संविधान बनाते समय इस बात का खास ख्याल रखा गया था कि इसमें सभी गुण हों इसीलिए अनेक देशों के संविधान के अंश इसमें शामिल किए गए।
संविधान तो मात्र एक लिखित दस्तावेज होता है लेकिन उसे किस तरह लागू करना है यह उस देश की सरकार पर निर्भर करता है, सरकार में बैठे व्यक्तियों के लक्ष्यों और उनकी विचारधारा पर निर्भर करता है। बाबासाहेब अम्बेडकर बहुत ही ज्ञानी और दूरदर्शी व्यक्ति थे वे इन सभी बातों से और भविष्य में आने वाली समस्याओं को पहले से ही समझते थे इसीलिए उन्होंने संविधान पूरा हो जाने के बाद अपने समापन भाषण में संविधान सभा के सामने अपने विचार व्यक्त किये थे जो आज के परिपेक्ष्य में 100% सच साबित होते हैं।
मैं यहाँ संविधान की अच्छाइयाँ गिनाने नहीं जाऊंगा क्योंकि मुझे लगता है संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अंततोगत्वा बुरा साबित होगा यदि संविधान को इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे हों। और संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो अंततः अच्छा साबित होगा अगर उसको इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे हों। इसलिए जनता और उसके राजनीतिक दलों की भूमिका को संदर्भ में लाये बिना कोई भी निर्णय लेना या कोई भी टिप्पणी करना मेरे विचार में व्यर्थ होगा।
राजनीतिक दल देश के लिए घातक क्यों हैं?
बहुमत में बैठी सरकार के किसी भी मंत्री, सांसद द्वारा किये गए किसी भी घोटाले, दुराचार या दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत किसी भी संवैधानिक संस्था, मीडिया या समाजसेवी संगठन में नहीं होती है बल्कि संबंधित पार्टी उस धूर्त व्यक्ति का पूरा पूरा समर्थन करती है। पार्टी को ऐसा करते हुए जरा भी आत्मग्लानि या पछतावा नहीं होता है।
वहीं यदि कोई निर्दलीय सांसद इस प्रकार का कोई गलत कार्य करता हुआ पाया जाता है तो उसके खिलाफ कड़े से कड़े कदम उठाए जाते हैं। अर्थात राजनीतिक दल अपनी ताकत का संवैधानिक तरीके से दुरुपयोग करते हैं। अपने लोगों को आगे बढ़ाते हैं अपनी विचारधारा को बढ़ावा देते हैं। और अपने विरोधियों का दमन करते हैं भले ही उनके विरोधी ईमानदार हों।
आये दिन नेताओं द्वारा आम पब्लिक व अफसरों पर अत्याचार के मामले आते रहते हैं। मतलब साफ है उनकी सरकार बहुमत में होती है इसलिए वे अपनी कुर्सी के नशे में कोई भी अपराध कर देते हैं।
देश को आजाद हुए लगभग 72 वर्ष हो चुके हैं लेकिन आज भी देश की 70% आबादी किसी बड़े चमत्कार के इंतजार में हैं। उन्हें लगता है कि हमारे देश में कभी ना कभी सब कुछ ठीक हो जाएगा। किसी खास राजनैतिक दल को चुनाव में विजय दिलाकर जनता कुछ समय के लिए खुश तो हो जाती है लेकिन संतुष्ट नहीं हो पाती है। मुद्दे ज्यों के त्यों बने रहते हैं या यूं कहें कि मुद्दों को जानबूझकर हल नहीं किया जाता बल्कि उन्हें पाल पोसकर अगले चुनावों के लिए सुदृढ़ किया जाता है।
चुनावों से पहले बड़े बड़े वादे, दावे किए जाते हैं, मौजूदा सरकार पर गंभीर आरोप लगाए जाते हैं और किसी तरह चुनाव जीत जाने के बाद वादों पर काम ही नहीं होता है। बाद में कह दिया जाता है कि यह तो “चुनावी जुमला” था। आखिर यह चुनावी जुमला क्या है और इसकी क्या जरूरत है? क्या नैतिकता का कोई मोल नहीं?
यदि कोई नेता ईमानदार है व अपने कार्यों के प्रति गम्भीर है तो वो आखिर क्यों किसी झूठे जुमले को चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल करेगा?
मनमोहन सिंह के कार्यकाल के समय भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए उतारा, और सिर्फ उतारा ही नहीं बल्कि पूरी भाजपा पार्टी मोदी के चेहरे के पीछे छिप गई।
हर तरह के प्रचार और भाषण में मोदी को ही आगे किया गया, और मोदी ने दिल खोलकर झूट बोला और कांग्रेस पर गम्भीर आरोप लगाए, नतीजा यह हुआ कि भाजपा चुनाव जीत गई। क्योंकि जनता के बीच यह बात पूरे जोरशोर से फैला दी गई थी कि कांग्रेस ने हजारों करोड़ रुपये का घोटाला किया है और धन को विदेशी बैंकों में जमा कर दिया है, इसे कालाधन का नाम दिया गया, यदि वह धन भारत में वापस आ जाये तो प्रत्येक को 15 लाख रुपये मिल सकते हैं। इसके लिए पतंजलि के रामदेव ने भाजपा के लिए अच्छा खासा माहौल तैयार किया, उसने भी भाजपा के प्रचार और कांग्रेस की बुराई में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने कहा कि भाजपा सरकार बनने के बाद सिर्फ 100 दिनों के भीतर कालाधन वापस ले जाएगी और फिर भारत में पेट्रोल सिर्फ 30 रुपये लीटर में मिलने लगेगा। लेकिन भाजपा चुनाव जीती, सरकार बनी लेकिन भाजपा ने जितने भी वादे किए थे उनमें से एक भी पूरा नहीं किया, बाद में जनता को पता चला वे सभी वादे जो चुनावों से पहले भाजपा ने किए थे सब “चुनावी जुमले” निकले।
उसी समय एक अन्य पार्टी अस्तित्व में आई जिसका नाम रखा गया “आम आदमी पार्टी” दरअसल अन्ना हजारे नामक एक समाजसेवी द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बड़ा आंदोलन किया गया था। जिसका मूल उद्देश्य था भ्रष्टाचार मुक्त भारत। हजारे चाहते थे कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल की नियुक्ति होनी चाहिए।
इसी बीच उनके आंदोलन में एक सरकारी अफसर शामिल हो गया जिसका नाम था अरविंद केजरीवाल। इन महाशय ने आंदोलन का रुख मोड़ दिया और राजनीति में प्रवेश कर गए, अपने कुछ साथियों को मिलाकर आम आदमी पार्टी का गठन कर लिया।
इस दौरान केजरीवाल ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर अनेक भ्रस्टाचारी के आरोप लगाए, यहाँ तक कि जेल में डालने की बात भी कही लेकिन चुनाव जीतने के बाद सब चुनावी जुमले निकले। क्या इतना झूठ बोलने के लिए केजरीवाल को सजा हुई? बिल्कुल नहीं।
लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच भेद
राजतन्त्र शासन की वह प्रणाली है जिसमें एक व्यक्ति (राजा) शासन का सर्वेसर्वा होता है। राजा या तो वंशगत होता है या किसी दूसरे राजा को युद्ध में पराजित करके राजा बन जाता है।
राजतंत्र एक ऐसा तंत्र है जिसमें किसी एक ही व्यक्ति को सम्पूर्ण अधिकार दे दिए जाते हैं और वह समाज के द्वारा चुने जाने की बजाय वंशानुगत राज करता है। उदाहरण के तौर पर किम जोंग जो की उत्तर कोरिया का शासक है ।
राजतंत्र शासन की सबसे प्राचीन व्यवस्था है जिसमें राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है और समस्त वैधानिक कार्यपालिक और न्यायिक शक्तियां उसी राजा में निहित मानी जाती हैं। इसमें कोई चुनाव नहीं होता एक ही राजपरिवार क्रमबद्ध रूप से सत्ता को थामे रहता है।
लोकतंत्र में जनता अपने पसंद के व्यक्ति को वयस्क मताधिकार द्वारा चुनती है वही व्यक्ति राज्य या देश पर राज करता है।
लोकतंत्र यानि जनता द्वारा जनता के लिए चुना गया नेता जो विभिन्न समूहों का मिश्रण होता है। इस तरह की व्यवस्था में प्रधान वही होता है जिसे सर्वाधिक मत मिले जैसे भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था।
अमेरिका और भारत दोनों लोकत्रांतिक देश हैं पर अमेरिका अपनी मूलभूत सेवाओ और तरक्की में भारत से काफी आगे है कारण वहाँ का नेतृत्व है उनके लिए अमेरिका का हित सर्वोपरि है भारत में नेतृत्व वर्ग के अपने निजी हित होते हैं।
सऊदी अरब राजा द्वारा शाषित किया जाने वाला देश है। पिछले कुछ सालों में उन्होंने काफी तरक्की की है। वहां के शासक वर्ग ने आय को मूलभूत सुविधाओं औऱ देशहित में खर्च किया है। नियम कानून सर्वोपरि हैं तथा समान रूप से सब पर लागू होते हैं और सर्वमान्य हैं।
अन्ततः लोकतंत्र और राजतंत्र में से क्या बेहतर है यह नेतृत्व/शासक वर्ग की सोच और नीयत पर निर्भर करता है अगर राजा अच्छा है तो राजतंत्र भी अच्छा लगेगा और राजा अगर बुरा है तो लोकतंत्र भी बुरा लगेगा।
इसमें कोई संदेह नही है कि लोकतंत्र राजतंत्र से बेहतर व्यवस्था है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रतिनिधि जवाबदेह होता है लेकिन राजतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होता।
और किसी ने सच ही कहा है,
‘निरंकुशता तानाशाही को जन्म देती है ”
क्या भारत में वाकई लोकतांत्रिक व्यवस्था है?
निश्चित ही राजतन्त्र का समय अब समाप्त हो चला है और हर तरफ लोकतंत्र की बयार बह रही है जो एक उदारवादी व्यवस्था है। लेकिन अगर आप वर्तमान मूर्खों के लोकतन्त्र को ध्यान से देखें तो पायेंगे कि प्रकारान्तर से यह राजतन्त्र ही है जहाँ कुछ परिवार जातिनीति और धर्मनीति के सहारे भेड़ो को हांक रहे हैं। भेड़ यानि भोली भाली जनता जो भावावेश में आकर किसी भी नेता को बिना सोचे समझे अपना बहुमूल्य वोट दे देती है।
हमारी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में बहुत सी खामियां हैं जिनके कारण लोकतंत्र व्यवस्था के होते हुए भी नेता राजतंत्र की भांति ही जनता पर राज कर रहे हैं नेता का बेटा बिना संघर्ष किये आसानी से नेता बन जाता है जबकि अच्छे लोग राजनीति में नहीं आ पाते और अगर आ भी जाएं तो कूटनीति से बाहर कर दिए जाते हैं। मार दिए जाते हैं या मनोबल तोड़ने के लिए झूठे केस में फंसाकर जेल में डाल दिये जाते हैं।
क्षेत्रीय दल और भारतीय राजनीति
क्षेत्रीय पार्टियों की एक खासियत यह है कि ये सभी एक ऐसे नेता के इशारे पर चलती हैं जिसकी सत्ता को पार्टी के अंदर कोई चुनौती नहीं दे सकता। संक्षेप में कहें तो इन्हें कोई एक नेता और उसके विश्वासपात्र चला रहे हैं। उनके परिवार के सदस्य और रिश्तेदारों का भी पार्टी के काम-काज में खासा दखल रहता है।
जो पार्टियां किसी वैचारिक आधार पर गठित हुई हैं, उन्हें भी समय के साथ व्यक्तिगत जागीर और व्यक्तिगत हितों की रक्षा का साधन बना दिया गया है।
इसलिए सामान्य तौर पर ऐसी पार्टियों का अस्तित्व भी उनका संचालन करने वाले नेता के जीवन काल से काफी नजदीक से जुड़ा है।
क्षेत्रीय संगठनों की एक और खास बात यह है कि परिवार के सदस्य, नजदीकी रिश्तेदार और मित्र पार्टी के काम का संचालन करते हैं और उनमें से ही एक उसके नेता की विरासत को उसके जीवन काल के दौरान या उसके बाद संभाल लेता है।
विकिपीडिया के अनुसार राजनीतिक दल अथवा राजनैतिक दल एक राजनीतिक संस्था है जो शासन में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने एवं उसे बनाये रखने का प्रयत्न करता है। इसके लिये प्राय: वह चुनाव की प्रक्रिया में भाग लेता है। राजनीतिक दलों का अपना एक सिद्धान्त या लक्ष्य (विज़न) होता है जो प्राय: लिखित दस्तावेज के रूप में होता है।
विभिन्न देशों में राजनीतिक दलों की अलग-अलग स्थिति व व्यवस्था है। कुछ देशों में कोई भी राजनीतिक दल नहीं होता। कहीं एक ही दल सर्वेसर्वा (डॉमिनैन्ट) होता है। कहीं मुख्यतः दो दल होते हैं। किन्तु बहुत से देशों में दो से अधिक दल होते हैं।
लोकसभा में दलितों की दमदार आवाज क्यों सुनाई नहीं देती?
देश की 16.6 फीसदी आबादी दलितों की हैं और उनकी आबादी 20 करोड़ से ज़्यादा है. इतनी बड़ी आबादी की आवाज़ अगर देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी लोकसभा में दमदारी से नहीं उठती, तो ये एक गंभीर मसला है.
भारत की संसदीय प्रणाली में एक चिंताजनक ट्रेंड दिख रहा है. वह है, लोकसभा में दलित समाज के तेज़-तर्रार नेताओं की अनुपस्थिति का. कहने को तो हर आम चुनाव में अनुसूचित जाति के 84 और अनुसूचित जनजाति के 47 सांसद लोकसभा में चुनकर आते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में लोकसभा की संरचना और कार्य प्रणाली पर नज़र दौड़ाने पर ऐसे सांसदों की सक्रियता में कमी साफ़-साफ़ दिखती है. खासकर अपने समाज से जुड़े मुद्दों पर वे आमतौर पर खामोश ही रहते हैं या फिर उनमें उस कौशल का अभाव है, जिसके बिना संसद में आवश्यक हस्तक्षेप करना मुमकिन नहीं हो पाता.
इस आम चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समाज से जिस तरह के उम्मीदवार उतारे हैं, उन पर नज़र दौड़ाने पर बालासाहेब प्रकाश अम्बेडकर के सिवाय ऐसा कोई उम्मीदवार नज़र नहीं आता है, जिसको सामाजिक न्याय से जुड़े जटिल मुद्दों की समझ हो या जो ऐसे सवालों पर मुखर रहा है. अगर प्रकाश अम्बेडकर इस आम चुनाव में जीत कर नहीं आते हैं, तो आने वाली लोकसभा में भी दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी ही दिखाई देगी.
अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी की वजह क्या है? दलित समाज के अच्छे और तेज़ तर्रार लोग चुनकर क्यों नहीं आ रहे हैं? इस सवाल का सीधा जवाब है कि विभिन्न राजनीतिक दलों का दलित समाज के वरिष्ठ और तेज़ तर्रार लोगों को टिकट न देना, और इस समाज के वरिष्ठ नेताओं का लोकसभा की बजाय राज्यसभा के माध्यम से संसद पहुंचना.
निवर्तमान लोकसभा में बीजेपी सांसदों में डॉ उदित राज काफ़ी सक्रिय रहे, लेकिन अंत समय में उनका टिकट कट गया.
अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के वरिष्ठ नेताओं का चुनकर जाना ज़रूरी क्यों है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें लोकसभा और राज्य सभा की शक्तियों में अंतर को समझना ज़रूरी है.
लोकसभा और राज्यसभा की शक्तियों में अंतर
संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा (निचला सदन) का महत्व राज्यसभा (उच्च सदन) से ज़्यादा होता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों का चुनाव सीधे-सीधे जनता द्वारा होता है, जबकि राज्यसभा का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीक़े से राज्यों की विधानसभाओं द्वारा और राष्ट्रपति के मनोनयन के आधार पर होता है. लोकसभा को राज्यसभा की तुलना में ज़्यादा शक्तियां प्राप्त हैं.
संसद की समितियों के ज़्यादातर सदस्य लोकसभा से ही चुनकर आते हैं, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या ज़्यादा है, और ज़्यादातर समितियां भी लोकसभा अध्यक्ष के तहत आती हैं, इसलिए समितियों में लोकसभा के सदस्यों का बोलबाला रहता है. संसद की ऐसी समितियों में वरिष्ठ सांसदों या फिर विषय विशेषज्ञता रखने वाले सांसदों का भी बोल बाला रहता है, इसलिए आजकल ऐसा अक्सर सुनने में आ रहा है कि दलित समाज के सांसद इन समितियों की मीटिंगों में जाने से ही कतराते हैं, और अगर जाते भी हैं, तो बोलने से कतराते हैं.
उक्त परिपेक्ष्य को ध्यान में रखकर अब इस बात की समीक्षा शुरू होनी चाहिए क़ि दलित समाज के वरिष्ठ राजनेता क्यों नहीं सीधे लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं? सामाजिक न्याय की लड़ाई का दावा करने वाली राजनैतिक पार्टियां विभिन्न विषयों की समझ रखने वालों को क्यों नहीं लोकसभा चुनाव लड़वा रही हैं?
क्या वाकई हमारे देश को राजनैतिक दलों की आवश्यकता है?
शरीर में जब कोई अंग खराब हो जाता है और शरीर के बाकी हिस्सों को भी गलाने लगता है तब उसको शरीर से अलग कर दिया जाता है भले ही उस अंग की उपयोगिता कितनी भी हो। आज हमारे देश में राजनीति का स्तर किस हद तक गिर चुका है यह बताने की जरूरत नहीं है, एक दल का बहुमत में बैठा नेता दूसरे पर खूब कीचड़ उछालता है, आज के नेता अपनी मर्यादा खो चुके हैं। देश के लिए बड़े ही शर्म की बात है कि संसद जैसी अनुशासन की जगह पर भी नेता आपस में भिड़ जाते हैं आखिर ऐसा होता क्यों है? और क्या हमें ऐसे नेताओं की वाकई में जरूरत है? जनता की मजबूरी है भ्रस्ट लोगों को चुनकर संसद में भेजना क्योंकि जब किसी दल ने भ्रष्ट नेता को ही टिकट दिया है तो जनता अच्छे नेता को कैसे चुन सकती है?
राजनैतिक दलों को समाप्त ही कर देना चाहिए क्योंकि इनको समाप्त करने से बहुत सी खामियां अपने आप मिट जाएंगी और निर्दलीय के रूप में जो हीरे छुपे हुए हैं वो निकलकर बाहर आएंगे जो कि अभी दबंगो के डर से चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।
स्वस्थ राजनीतिक व्यवस्था के लिए सुझाव
विश्विद्यालयों में होने वाले छात्र चुनावों में क्या राजनैतिक दलों का हस्तक्षेप उचित है?
विश्वविद्यालयों में राजनैतिक दलों का हस्तक्षेप विद्यार्थियों के विचारों को दूषित करता है। विद्यार्थी जहां शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं उस माहौल में उन्हें कोई एक मनपसन्द राजनीतिक दल चुनने के लिए मजबूर किया जाता है। किसी पार्टी के विचारधारा भले ही समाज के लिए घातक हो लेकिन पार्टी और कार्यकर्ताओं द्वारा विद्यार्थियों की छोटी उम्र में उनका ब्रेनवाश करके अपनी घिनौनी विचारधारा उनके दिमाग में ठूंसी जाती है। यदि बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के ही छात्र चुनाव सम्पन्न करा लिए जाएं तो विद्यार्थियों के अच्छे व्यक्तित्व के लिए अच्छा होगा, और तब वे अच्छे नागरिक बनेंगे क्योंकि तब वे अपनी खुद की विचारधारा बनाने और समाज की जरूरतों को समझने के लिए स्वतंत्र होंगे।
पूर्व नेता को आजीवन सुविधा क्यों दी जाती है?
आखिर क्यों एक पूर्व नेता को आजीवन सुविधाओं का लाभ दिया जाता है? कोई भले ही 1 दिन के लिए मंत्री बने फिर भी उसको हर तरह का लाभ आजीवन दिया जाता है। क्या इस गलत व्यवस्था को समाप्त नहीं करना चाहिए जिसमें आखिर जनता का ही नुकसान होता है? मात्र 5 वर्ष के लिए विधायक /सांसद को पेंशन यह कहाँ का न्याय है…?
नेताओं के लिए कोई प्रतियोगिता परीक्षा क्यों नहीं होती?
नेतागिरी के लिए भी एक टेस्ट अनिवार्य कर देना चाहिए। जिसमें संविधान और समाजशास्त्र के सवाल पूछे जाने चाहिए। तब होगा बढ़िया नेताओं का जन्म। नेताओं का कार्य तो आखिर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी का होता है उनके ऊपर देश की जिम्मेदारी होती है फिर उनके लिए टेस्ट की जरूरत क्यों नहीं होती? जो टेस्ट पास करेगा वही चुनाव लड़ेगा।
क्या वर्तमान टिकट वितरण प्रणाली न्यायसंगत है?
यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान टिकट वितरण प्रणाली समाज सेवियों की जगह भेड़ियों को जन्म दे रही है। जिस दिन राजनीती से टिकटीकरण समाप्त हो जायेगा उसी दिन यह साफ हो जाएगा कि अब मलाई खाने के लिए नहीं बल्कि सच्ची समाजसेवा के लिए चुनाव लड़ा जा रहा है। अर्थात टिकट पार्टी द्वारा नहीं बल्कि चुनाव आयोग द्वारा प्रदान की जानी चाहिए। इसके अलावा राजनेताओं के लिए भी प्रतियोगिता परीक्षा शुरू कर देनी चाहिए क्योंकि यह देश के भविष्य का सवाल है इससे खिलवाड़ करना उचित नहीं। किसी व्यक्ति को राजनीति में आना हो तो शुरुआत में ही यह देखा जाता है कि उसको अपनी पार्टी व नीतियों को बेहतर साबित करना भले ही नीतियां जनविरोधी हों। और अन्य पार्टियों और उनकी नीतियों का विरोध करना आना चाहिए। भले ही अन्य पार्टी की नीतियां जनमानस के लिए फायदेमंद हों। आज सच्चे समाज के सेवकों के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं बचा है या तो उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाता है या मरवा दिया जाता है।
- नेता चाहे तो दो सीट से एक साथ चुनाव लड़ सकता है !
- नेता जेल मे रहते हुए चुनाव लड सकता है.
- नेता चाहे जितनी बार भी हत्या या बलात्कार के मामले में जेल गया हो, फिर भी वो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जो चाहे बन सकता है,
- नेता अंगूठा छाप हो तो भी भारत का फायनेन्स मिनिस्टर बन सकता है.
- नेता यदि अनपढ़-गंवार और लूला-लंगड़ा है तो भी वह आर्मी, नेवी और ऐयर फोर्स का चीफ यानि डिफेन्स मिनिस्टर बन सकता है जिसके पूरे खानदान में आज तक कोई स्कूल नहीं गया.. वो नेता देश का शिक्षामंत्री बन सकता है जिस नेता पर हजारों केस चल रहे हों.. वो नेता पुलिस डिपार्टमेंट का चीफ यानि कि गृह मंत्री बन सकता है.
राजनैतिक दलों को यदि समाप्त कर दिया जाए तो कैसा रहेगा?
सभी राजनैतिक पार्टियों को भंग कर देना चाहिए। और सभी आम जनता को निर्दलीय ही चुनाव लड़ने का अवसर देना चाहिए, जो लोग नेतागिरी का टेस्ट पास कर ले उसी को चुनाव लड़ने का अधिकार हो। इससे एक तरफ टिकट की खरीद-फरोख्त बंद होगी और दूसरी तरफ पार्टी चंदे की आड़ में मोटी रकम इधर से उधर नहीं होने पाएगी। किसी एक पार्टी में बहुमत के कारण घमंड नहीं आएगा। सरकार गिराने की धमकी नहीं मिलेगी, लाभ के पदों का सदुपयोग होगा।
राजनैतिक दलों को समाप्त ही कर देना चाहिए क्योंकि इनको समाप्त करने से बहुत सी खामियां अपने आप मिट जाएंगी और निर्दलीय के रूप में जो हीरे छुपे हुए हैं वो निकलकर बाहर आएंगे जो कि अभी दबंगो के डर से चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।
हम दावे से कह सकते हैं कि राजनीति में बदलाव करने की जरूरत है उसकी वजह है वर्तमान में सिर्फ राजनेता ही बदलाव कर सकते हैं और वे सिर्फ अपने लाभ के बदलावों को ही करते हैं।
वर्तमान समय में बदलाव करने का अधिकार सिर्फ राजनेताओं को ही होता है, राजनेता सिर्फ उन्हीं बदलावों को करते हैं जिनसे उन्हें फायदा होता है।
भारतीय राजनीति को सुधारने के लिए कुछ उपयोगी सुझाव
आज मैं आपको कुछ सुझाव दे रहा हूँ जो यकीनन राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं। आप इन सुझावों की सूची को बढ़ा सकते हैं।
राजनीति में व्यवसायियों का क्या काम?
क्यों न बिजनेसमैन को राजनीति की परमिशन ही न दी जाए। क्योंकि बिजनेसमैन तो हमेशा अपना ही फायदा देखता है।
नई चुनाव प्रणाली
सभी राजनैतिक पार्टियों को भंग कर देना चाहिए। और सभी आम लोगों को निर्दलीय ही चुनाव लड़ने का अवसर देना चाहिए। इससे एक तरफ टिकट की खरीद-फरोख्त बंद होगी और दूसरी तरफ पार्टी चंदे की आड़ में मोटी रकम इधर से उधर नहीं होने पाएगी।
आरक्षित सीटों से सिर्फ उसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार मिलना चाहिए जो कुछ दलित आंदोलनों का हिस्सा रहा है। यकीन मानिए स्वार्थी दलित व्यक्ति संसद में नहीं जा पाएंगे।
नेतागिरी के लिए भी एक टेस्ट अनिवार्य कर देना चाहिए। जिसमें संविधान और समाजशास्त्र के सवाल पूछे जाने चाहिए। तब होगा बढ़िया नेताओं का जन्म
प्रधानमंत्री पद के चुनावों के लिए सुझाव
वर्तमान समय में प्रधानमंत्री का चुनाव सांसदों द्वारा होता है यानि चुने हुए सांसद जिस व्यक्ति को चाहें उसे प्रधानमंत्री बना सकते हैं इस व्यवस्था में कमी है, इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं कहा जा सकता है जनता तो एक खास पार्टी को वोट देती है वह सांसद को वोट देती ही नहीं है, जो पार्टी पहले से ही चुने हुए व्यक्तियों को टिकट देकर मैदान में उतारती है जाहिर सी बात है वे सांसद उसी पार्टी के व्यक्ति को सांसद बनाएंगे इसमें पार्टी और सांसदों की आपसी मिलीभगत है जनता तो मजबूर है इसलिए मजबूरी में वोट देती है। इसलिए यदि इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाना है तो प्रधानमंत्री का चुनाव सांसदों द्वारा नहीं बल्कि डायरेक्ट जनता द्वारा चुनाव से होना चाहिए और प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार इस तरह नामित होने चाहिए :-
- सुप्रीम कोर्ट 1 वकील/जज को नामित करे।
- देश की मीडिया 1 मीडिया के व्यक्ति को नामित करे।
- देश की सेना 1 सेवानिवृत्त व्यक्ति को नामित करे।
- यूपीएससी 1 सेवानिवृत्त अधिकारी को नामित करे।
- देश के दलित संगठन सर्वसम्मति से किसी एक दलित व्यक्ति को नामित करें। जिसमें सभी संस्थाओं की सम्मति लिखित में होनी चाहिए। (एक जाति का सिर्फ एक सबसे बड़ा संगठन शामिल होगा) धर्म को इससे अलग ही रखा जाना चाहिए।
लोकसभा चुनावों के लिए सुझाव
सभी राजनीतिक पार्टियों को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। सभी उम्मीदवार निर्दलीय ही लोकसभा चुनाव लड़ें। जनता उनकी काबलियत देखकर उन्हें वोट देगी ना कि किसी राजनीतिक दल की चमक दमक/झूठे वादे देखकर वोट देगी। वर्तमान समय में जनता भेड़ चाल की तरह मंत्रमुग्ध होकर अपनी मनपसंद पार्टी को वोट देती है जो बिल्कुल गलत है। जबकि होना यह चाहिए कि जनता अपने क्षेत्र के सबसे ईमानदार व्यक्ति को वोट दे। और ऐसा तभी हो सकता है जब उम्मीदवार खुद अपने बूते कुछ हो/ ईमानदार हो, उसपर किसी पार्टी की मुहर ना लगी हो।
सुझावों से होने वाले फायदे
- इस तरह चुनी गई सरकार मजबूत होगी,
- सरकार के गिरने का कोई खतरा नहीं होगा।
- कोई विपक्ष नहीं होगा।
- कोई दल नहीं बदलेगा।
- मुद्दों पर काम होगा,
- झूठे वादे खत्म हो जाएंगे।
- राजनीति में बदलाव आएगा,
- कोई किसी पर कीचड़ नहीं उछलेगा।
- चुनावों में करोड़ों रुपये प्रचार में बर्बाद नहीं होंगे।
- नेता खरीदे नहीं जाएंगे।
- पार्टियां चंदा नहीं उगाह पाएंगी।
- टिकट बंटवारे के नाम पर उगाही नहीं की जाएगी।
- प्रत्येक सांसद अपने क्षेत्र में मेहनत से काम करेगा क्योंकि तभी वह अगली बार जीत पायेगा
- ईवीएम हैक जैसी संभावना नहीं होगी क्योंकि मशीनरी पर किसी एक व्यक्ति/पार्टी का आधिपत्य नहीं होगा।
- देश के संसाधनों/संस्थानों/नीतियों/संविधान पर किसी एक व्यक्ति/समुदाय/दल का आधिपत्य नहीं रहेगा।
अगर आपको मेरा सुझाव पसंद आया हो तो इसको तब तक शेयर करिये जब तक इसको अमल में नहीं लाया जाता। यदि आपको लगता है की इस सिस्टम को बदल देना चाहिये.. नेता और जनता, दोनो के लिये एक ही कानून होना चाहिये
लुभावने वायदे और झूठ की संस्कृति को बढ़ावा (रेवड़ी संस्कृति)
हमारे देश में पहले और आज की राजनीति में कितना फर्क आ गया है। पहले देश की राजनीति एक बड़ी हद तक मूल्यों पर चलती थी। राजनीतिक दल और मतदाता दोनों ही कहीं न कहीं नैतिकता व आदर्शों का पालन कर राजनीतिक गरिमा बनाए रखते थे। लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल गई है। अब राजनीतिक दल चुनावों के समय जिस तरह मतदाताओं को लुभाने के लिए लोक-लुभावन घोषणाएं करते रहते हैं, उस पर प्रश्न खड़ा करने का समय आ चुका है। पार्टियां जिस तरह अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं, उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। कुछ समय पहले कई राज्यों में कुछ राजनीतिक दलों ने गरीबों को मुफ्त में गेहंू और चावल बांटने का दांव चला या फिर उन्हें दो-तीन रुपए प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराने की बात कही। मतदाताओं को लुभाने के लिहाज से यह दांव सफल रहा तो आज ऐसे ही वादे करने की सभी पार्टियों में होड़ मच गई है।
यह सब खेल तमिलनाडु की राजनीति से शुरू हुआ था, जहां साड़ी, मंगलसूत्र, मिक्सी, रंगीन टीवी आदि बांटने की संस्कृति ने जन्म लिया। आज ऐसे बहुत से राज्य हैं, जहां इस मुफ्त या रियायती वितरण संस्कृति विस्तार हो गया है। यह संस्कृति थमने का नाम ही नहीं ले रही है। रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराने की परंपरा घातक साबित होने वाली है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आखिर हमारे किसानों को खेती में सिर खपाने की क्या जरूरत है? सीमांत किसान (जिस पर देश के 50 प्रतिशत कृषि उत्पादन का भार है) मनरेगा या अन्य किसी दिहाड़ी कामकाज से जुड़कर 250-300 रुपए प्रतिदिन कमा ही लेगा। जाहिर है, इस पैसे से वह अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिहाज से पर्याप्त अनाज प्राप्त कर लेगा। सवाल है कि ऐसे में खेती कौन करेगा?
ध्यान रहे कि हमारे देश में कृषि वैसे ही अब लाभ का सौदा नहीं रही। यदि मुफ्तखोरी की यह संस्कृति कृषि पर प्रतिकूल असर डालती है तो देश के खाद्यान्न् उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है। लगता है कि हमारे देश के तमाम राजनीतिक दल इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि लोक-लुभावन राजनीति के कैसे दुष्परिणाम हो सकते हैं। वे सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक हालात को एक ऐसी अंधेरी खाई की तरफ धकेल रहे हैं, जहां से निकलना कठिन हो सकता है।
बेहतर होता कि राजनीतिक दल कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि कर सीमांत किसानों और श्रमिकों को लाभ देने की कोशिश करते। ऐसा करने से समाज को कई दूसरे फायदे भी होते। खेती-किसानी में एक स्थायित्व आ जाता और कृषि लाभ का धंधा हो जाती, जिसकी आज शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही है।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा किएक तरफ देश में मुफ्त या सस्ती दरों पर अनाज बांटने का दौर चला है तो दूसरी तरफ कच्ची-पक्की शराब के चलन में भी तेजी आई है। पिछले दस-पंद्रह वर्षों के दौरान देश के अनेक राज्यों में शराब के ठेके भी बढ़े हैं व शराब की बिक्री में भी तेजी आई है। शराब की बिक्री बढ़ने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि अनाज में खर्चे की बचत से गरीबों की एक बड़ी आबादी शराब पीने पर उतारू हो गई है। देवभूमि कहे जाने वाले देश के प्रमुख पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का अनुभव बताता है कि यहां पिछले 15 वर्षों में शराब की खपत अच्छी-खासी बढ़ गई है। लोग इस वजह से परेशान भी हैं और इस राज्य में इसके खिलाफ कई आंदोलन भी हुए हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं नहीं रेंग रही है। वह शराब पर रोक लगाने के बजाय महिलाओं के मतों को लुभाने के लिए करवाचौथ के अवसर पर अवकाश देने जैसी घोषणाएं कर रही है।
उत्तर भारत में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ रही है, जो चुनाव के मौके पर ज्यादा से ज्यादा लोक-लुभावन वादे कर रहे हैं। पहले युवाओं को लुभाने के लिए लैपटॉप, साइकिल और अन्य सुविधाएं बांटने का वादा किया जाता था। अब स्मार्टफोन और पेट्रोल आदि देने के वादे किए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि राजनीतिक दलों की ओर से किए जाने वाले ऐसे वादे कहीं न कहीं जनता को प्रभावित करते हैं। लोगों को भी लगने लगा है कि अगर मुफ्त में कुछ हासिल होता है, तो उसे लेने में क्या बुराई है। इस वक्त विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों में कुछ राजनीतिक दलों ने तो लोगों को घी, मक्खन आदि मुफ्त या फिर बहुत सस्ते दामों में देने का वादा किया है।
चूंकि ऐसे लोक-लुभावन वादे आर्थिक नियमों की अनदेखी करके किए जाते हैं, इसलिए उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। हकीकत में इन तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे, जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है, पर शायद इसमें निर्वाचन आयोग को भी सख्ती से आगे आना होगा। निर्वाचन आयोग को देखना चाहिए कि चुनावी घोषणा-पत्र मतदाताओं के मांग पत्रों के आधार पर तैयार हों। जाहिर है कि इससे समाज की प्राथमिकताओं को बल मिलेगा और रेवड़ियों की शक्ल वाले मुद्दे स्वत: ही गायब हो जाएंगे।
आखिर जब न्यायपालिका बिगड़ती आबो-हवा पर सरकारों से सवाल पूछ सकती है तो आवश्यक हो जाता है कि वह दलों के अनैतिक और असीमित प्रस्तावों यानी घोषणा-पत्रों पर भी नियंत्रण लगाए, क्योंकि इस तरह की अनैतिकता जनभावनाओं को तो भ्रमित करती ही है, साथ ही देश की दिशा और प्राथमिकता को भी बदलने का काम करती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा-पत्रों के मामले में कुछ दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन ऐसा लगता है कि उनका पालन नहीं हो पा रहा है। इसका पता दिल्ली उच्च न्यायालय में लोक-लुभावन घोषणापत्रों को लेकर दायर की गई याचिका से चलता है।
दरअसल ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है जिससे आम जनता राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों को चुनौती दे सके, क्योंकि वे प्राय: व्यावहारिकता से दूर होते हैं। तरह-तरह की चीजें मुफ्त में बांटने का वादा करने वाली राजनीति को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि ये वो राजनीति है, जो देश को सबल-सक्षम और आत्मनिर्भर बना सकती है। ध्यान रहे कि राजनीति के सही पटरी पर आने में जितनी देर होगी, देश के आत्मनिर्भर बनने में उतना ही विलंब होगा।
राजनीतिक दल कंपनियों से कितना चंदा लेते हैं? आम लोगों के पास शायद ही इस सवाल का जवाब हो.
लेकिन राजनीतिक दलों के चंदे पर नज़र रखने वाले ग़ैरसरकारी संगठन एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स यानी एडीआर की ताज़ा रिपोर्ट ने पुराने सवालों को फिर से सामने ला कर रख दिया है.
बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम, बसपा और तृणमूल कांग्रेस के बही-खातों की पड़ताल करके ये रिपोर्ट तैयार की गई है.
चंदा लेने से जुड़े नियमों के तहत राजनीतिक दलों को 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाले दानकर्ताओं के नाम सार्वजनिक करना होता है.
एडीआर की ये रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2016-17 में सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट नाम की एक कंपनी ने बीजेपी को अकेले 251.22 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर दिए. ये बीजेपी को मिलने वाले कुल चंदे का 47.19 फीसदी है. इसी कंपनी ने 13.90 करोड़ रुपये कांग्रेस को भी दिए हैं.
‘सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट’, आपने ये नाम शायद पहले नहीं सुना होगा. ये एक कंपनी है जो कॉरपोरेट दुनिया से पैसा लेकर राजनीतिक दलों को चंदा देती है.
राष्ट्रीय दलों को वित्तीय वर्ष 2016-17 में 20,000 रुपये से ज़्यादा मिले चंदे की कुल रकम 589.38 करोड़ रुपये है. ये पैसा 2123 चंदों से मिला है.
बीजेपी को 1194 लोगों या कंपनियों से 532.27 करोड़ रुपये का चंदा मिला है. वहीं कांग्रेस को इस साल 599 लोगों या कंपनियों से 41.90 करोड़ रुपये मिले हैं. बाक़ी छह राजनीतिक दलों को जितना चंदा मिला है, बीजेपी को उनसे 9 गुणा से भी ज़्यादा चंदा मिला है.
बसपा ने पिछले 11 सालों की तरह, 2016-17 के लिए भी यही कहा है कि किसी ने भी उनकी पार्टी 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदा नहीं दिया है.
राजनीतिक दलों को साल 2016-17 में मिले कुल चंदे में 487.36 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी देखी गई है जो 478 फ़ीसदी अधिक है. इससे पहले के वित्त वर्ष 2015-16 में पार्टियो को कुल 102.02 करोड़ रुपये का चंदा मिला था.
बीजेपी को मिले चंदे में 593 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. साल 2015-16 के दौरान बीजेपी ने 76.85 करोड़ रुपये चंदा मिलने की बात कही थी. साल 2016-17 में ये चंदा बढ़कर 532.27 करोड़ रुपये हो गया.
पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले तृणमूल कांग्रेस के चंदे में 231 फीसदी बढ़ोतरी हुई है जबकि सीपीएम और कांग्रेस के चंदे में क्रमशः 190 फीसदी और 105 फीसदी का इजाफा हुआ है.
ये सवाल पूछा जा सकता है कि क्या सभी चंदे ऐसे लोगों ने दिए हैं जिनके नाम राजनीतिक दलों ने सार्वजनिक कर दिए हैं. इसका जवाब है, नहीं.
अज्ञात स्रोत भी तो कुछ होते हैं और इसी के तहत एक तरह के चंदे को ‘स्वैच्छिक योगदान’ कहा जा रहा है.
अज्ञात स्रोतों से बीजेपी को 2016-17 में 464.94 करोड़ रुपया बतौर चंदा मिला है. इस आमदनी का 99.98 फीसदी या 464.84 करोड़ रुपया ‘स्वैच्छिक योगदान’ के तहत मिला है.
कॉर्पोरेट चंदे के बाद अज्ञात स्रोतों के मामले में भी कांग्रेस बीजेपी से बहुत पीछे है. अज्ञात स्रोतों ने कांग्रेस को भी 126.12 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर दिए.
अब एक नज़र उन सवालों पर जो राजनीतिक दलों के चंदे को लेकर उठते रहे हैं.
राजनीतिक दल किन से चंदा ले सकते हैं ?
जनप्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 29बी के मुताबिक़ भारत में कोई भी राजनीतिक दल सभी से चंदा ले सकते हैं, मतलब व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट से भी.
विदेशी नागरिकों से भी पार्टियां चंदा ले सकती हैं. वो केवल सरकारी कंपनी या फिर विदेशी कंपनी से चंदा नहीं ले सकतीं हैं. अगर विदेशी कंपनी भारत में मौजूद हो तभी उससे पार्टियां चंदा नहीं ले सकतीं.
विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम, 1976 की धारा 3 और 4 के मुताबिक़ भारतीय राजनीतिक दल विदेशी कंपनियों और भारत में मौजूद ऐसी कंपनियों से चंदा नहीं ले सकती हैं जिनका संचालन विदेशी कंपनियां कर रही हैं.
पार्टियां कितना चंदा ले सकती हैं?
कंपनियां राजनीतिक दलों को कितना चंदा दे सकती है, इसको लेकर अलग अलग तरह के प्रावधान हैं.
मसलन तीन साल से कम समय वाली कंपनी राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती है और कंपनीज़ एक्ट की धारा 293ए के मुताबिक़ कोई भी कंपनी अपने सालाना मुनाफ़े के पांच फ़ीसदी तक की राशि को ही चंदे के तौर पर दे सकती है.
वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों के लिए चंदा लेने के लिए कोई सीमा नहीं है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के मुताबिक़ राजनीतिक दलों को आयकर से छूट मिली हुई है.
लेकिन ध्यान देने की बात ये है कि उन्हें भी अपना इनकम टैक्स रिटर्न दाख़िल करना होता है. यानी पैसों का हिसाब क़िताब राजनीतिक दलों को भी रखना होता है.
चंदे के स्रोत का पता कैसे लगाया जा सकता है?
प्रावधानों के मुताबिक चंदे से स्रोत का पता लगाना संभव होता है. लेकिन इसमें एक ख़ामी की वजह से ये व्यावहारिक तौर पर मुश्किल है.
20 हज़ार रुपये से कम के चंदे के बारे में चुनाव आयोग को बताना ज़रूरी नहीं है.
हालांकि राजनीतिक पार्टी को इसके बारे में इनकम रिटर्न में बताना होता है, लेकिन 20 हज़ार रुपये से कम के चंदे के स्रोत के बारे में इसमें भी जानकारी देना जरूरी नहीं होता है.
मोटे तौर पर ये देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियां अपने चंदे का अधिकतम हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया हुआ बताती हैं.
ये भी संभव है कि पार्टी 20 हज़ार रुपये की सीमा के भीतर कई लोगों से बैकडेट में चंदा लिया हुआ बता सकती है. फिर कुछ हिस्सा रखकर काले पैसे को सफ़ेद बता सकती है.
हालांकि चुनाव आयोग सख़्ती दिखाए तो राजनीतिक दलों की ऐसी गड़बड़ी सामने आ सकती है और इससे दल विशेष की सार्वजनिक छवि को भी नुकसान हो सकता है.
फंडिंग समाजसेवा के लिए या स्वार्थ के लिए
”राजनीतिक दलों की आमदन और खर्चे के ब्योरे पूरी तरह पारदर्शी नहीं होते हैं. पहले एक लिमिट थी 20 हज़ार रूपये तक चंदा लेने की, लेकिन अब किसी भी सीमा तक ले सकते हैं.
वो पैसा कहां से ले रहे हैं, किस तरह से ले रहे हैं, यह चंदा लेने के बहुत सारे मामलों में सार्वजनिक नहीं होता है. चुनाव आयोग अपने लेखा विभाग से इसकी जांच तक नहीं करा सकता है। 2014-15 के वित्त वर्ष में भाजपा ने 970 करोड़ रुपये और कांग्रेस ने 700 करोड़ रुपये खाते में दिखाए थे आखिर इतनी बड़ी रकम की उनको क्या जरूरत है इसके खिलाफ हम सवाल क्यों नहीं उठाते हैं क्या यह पैसा गरीबों के हित में खर्च किया जाएगा? नहीं।
गठबंधन की राजनीति – पार्टी की विचारधारा का क्या महत्व?
पिछले दस वर्षों से देश में राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि 75 प्रतिशत राज्यों में गठबंधन सरकारें ही सत्ता में हैं। उससे पहले एक दल की ही सत्ता रहती थी। केंद्र में और कमोबेश राज्यों में भी। किंतु अब माहौल पलट गया है। उत्तर प्रदेश में पिछले चार चुनावों में मतदाताओं ने गठबंधन के पक्ष में मतदान किया। चार चुनाव हुए, किंतु कोई एक दल बहुमत प्राप्त करने में नाकामयाब रहा। नतीजतन गठबंधन सरकार स्थापित करने की अवधारणा जड़ें जमाती गई। पांच साल से केंद्र में भी गठबंधन सरकार का प्रयोग आजमाया जा रहा है।
मुझे यकीन है कि गठबंधन की प्रक्रिया से गुजरते हुए राजनीति में ऐसा ध्रुवीकरण होगा कि देश में द्वि-दलीय व्यवस्था स्थापित होगी। पहले हमने एकदलीय सत्ता देखी, फिलहाल बहुदलीय सत्ता का अनुभव ले रहे हैं। निकट भविष्य में द्वि-दलीय राजनीतिक व्यवस्था स्थापित होने की संभावना है। यह बदलाव पहले राष्ट्रीय स्तर पर आ सकता है। प्रदेशों में आने में थोड़ी देर लगेगी। तब तक हमें मतदाताओं का फैसला मानकर छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर बहुदलीय शासन ही चलाना होगा। मतदाता यह जानने एवं महसूस करने के बावजूद कि गठबंधन सरकार में फैसला करना एवं लागू करना दोनों ही मुश्किल होता है, किसी एक दल को जनादेश नहीं दे रहे हैं। लिहाजा राजनीतिक दलों को मिली-जुली सरकारों की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ रही है।
गठबंधन शासन व्यवस्था का मूल मंत्र सहमति एवं सहयोग है। कुछ गठबंधन चुनाव के पहले से होते हैं, कुछ चुनाव के बाद सत्ता हासिल करने के मकसद से किए जाते हैं। यदि चुनाव के पहले दलों में गठबंधन हो तो एक-दूसरे को समझने, समान कार्यक्रम बनाने एवं शासन चलाने में कठिनाइयां नहीं आतीं। जैसे महाराष्ट्र में हुआ। शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के बीच चुनाव के पहले से गठजोड़ होता रहा है। सन 1995 में जब हमारी युति सत्ता में आई तो शासन चलाने में हमें कोई दिक्कत नहीं आई। हमने न सिर्फ सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा किया, बल्कि साढ़े चार साल में विकास के ऐसे काम किए जो कांग्रेस की एक दलीय सरकार 40 साल में नहीं कर पाई थी।
अगर गठबंधन सरकार में शामिल घटक दलों को अपनी मर्यादाओं का अहसास रहे और यदि वे गठबंधन की राजनीतिक संस्कृति का पालन करें तो फैसले करना ज्यादा मुश्किल नहीं होता। पर जिस तरह घटक दलों को गठबंधन की मजबूरियां समझनी होती हैं, उसी तरह आम जनता को भी इन्हें मानना चाहिए, क्योंकि उसी जनता के आदेशानुसार गठबंधन सरकारें जन्म लेती हैं।
गठबंधन सरकार का नेतृत्व संभालने वाले नेता में विशेष गुणों की आवश्यकता होती है। उसे घटक दलों के विचारों एवं नीति को ध्यान में रखकर सहयोग एवं सहमति से शासन चलाना पड़ता है। यदि वह हठवादी हो तो काम नहीं चल सकता। जिस दल को बहुमत प्राप्त हो, उस दल के नेता को फैसले करने की आजादी मिलती है। यह सुविधा गठबंधन के नेता को प्राप्त नहीं होती। यह बात केंद्र में सत्तासीन वाजपेयी सरकार के मामले में बहुत अच्छी तरह लागू हुई है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने राजग के नेतृत्व को कुशलता से संभाला है।
ऐसा नहीं कि गठबंधन सरकार में खामियां ही खामियां हैं। यह सच है कि गठबंधन सरकार उतनी स्थिर नहीं होती, जितनी बहुमत प्राप्त एक दल की सरकार होती है। किंतु यदि हम यह सोचें कि गठबंधन व्यवस्था में छोटे दलों को सत्ता में भागीदारी का जो मौका प्राप्त होता है तथा विभिन्न विचारों एवं अवधारणा को मिलाकर जो फैसले होते हैं, वह कितनी अहम बात होती है तो गठबंधन की अच्छाइयां समझने में आसानी होती है।
नहीं होता और उनके विचारों को स्थान नहीं मिलता। मैंने महसूस किया है कि गठबंधन सरकार में काम करते समय परस्पर विरोधी विचार समझने और खुद की गलत धारणाएं दुरुस्त करने का अवसर मिलता है। तब हम दूसरों की समस्याएं समझने की आदत डाल सकते हैं। क्या यह बात फायदेमंद नहीं कि हम अपनी ही बात को सही मानने की आदत छोड़कर मत परिवर्तन का रास्ता प्रशस्त कर सकते हैं। गठबंधन सरकार में हमारी मानसिकता का विकास होता है। विरोधी विचारों के व्यक्ति एवं दल के साथ सतत संवाद रखने तथा काम करने का मौका मिलता है। एक और प्रमुख मुद्दा यह भी है कि बार-बार के चुनाव टाले जा सकते हैं।
संसदीय लोकतंत्र का सबसे मजबूत पहलू यह है कि गलत निर्णय बदले जा सकते हैं। गलत निर्णय करने वाले नेता को भी बदला जा सकता है। एक दलीय या द्वि-दलीय राजनीतिक व्यवस्था में यह बात खासतौर पर लागू होती है। एक दल का शासन हो तो तत्काल निर्णय करना एवं उन्हें लागू करना दोनों संभव होता है। गठबंधन सरकार में निर्णय की प्रक्रिया लंबा समय लेती है। इससे सरकार का परफॉरमेंस प्रभावित होता है। किन्तु गठबंधन सरकारों के अनुभव से गुजरने के बाद प्रादेशिक अस्मिता एवं छोटे दलों के महत्व को भुला देने की प्रवृति का स्थान नहीं रहेगा। पहले की तरह अब ऐसा नहीं होगा कि केंद्र में शासन कर रही एक दलीय सरकार प्रादेशिक अस्मिता की पूरी तरह उपेक्षा करे। गठबंधन के अनुभव के बाद हमारे मतदाता और राजनेता दोनों अधिक परिपक्व और अधिक सयाने हो जाएंगे।